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खुले आकाश तले / मनोज चौहान

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<poem>
खुले आकाश तले ,
मैं बैठा था उस रोज,
विचार कर रहा था,
अपने ही अस्तित्व पर l

कि कौन हूं मैं,
और कंहा से आया हूं,
तलाशता रहा मैं,
जिंदगी के ध्येय को l

उस नीले गगन में दिखे,
कुछ घने बादल,
दिला रहे थे वो यकीन मानो,
कि बरसेगें वे भी एक रोज,
और कर देगें तृत्त,
इस प्यासी धरा को l

भर जायेगें फिर,
सभी सूखे जल स्त्रोत,
खिल उठेगें फिर,
पेड.-पौधे और वनस्पति l

बोध हुआ फिर मुझे,
मानव जीवन के ध्येय का,
स्मरण हो चले सभी कर्तव्य,
अहसास हुआ मुझे,
जीवन के लक्ष्य का,
नीले आकाश में,
उमड.ते वो घने बादल,
प्रेरणा स्त्रोत बन गए मेरे l


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