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15:18, 24 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
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|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
अब रो के भी आँखों की जलन कम नहीं होती
कितने भी घनेरे हों तिरी ज़ुल्फ़ के साए
इक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती
होटों से पिएँ चाहे निगाहों से चुराएँ
ज़ालिम तिरी खुशबू-ए-बदन कम नहीं होती
मिलना है तो मिल जाओ यहीं हश्र में क्या है
इक उम्र मिरे वादा-शिकन कम नहीं होती
'क़ैसर' की ग़ज़ल से भी न टूटी ये रिवायत
इस शहर में ना-क़दरी-ए-फ़न कम नहीं होती
</poem>
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