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<poem>दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
आओ हम अपने बुजुर्गों के मकाँ देख आएँ

आओ भीगी हुई आखों से पढ़ें नौहा-ए-दिल
आओ बिखरे हुए रिश्तों का ज़ियाँ देख आएँ

टूटा टूटा हुआ दिल ले के फिरे गलियों में
कच्ची मिट्टी के खिलौनों की दुकाँ देख आएँ

रौशनी के कहीं आसार तो बाकी होंगे
आओ पिघली हुई शम्ओं का धुआँ देख आएँ

जिन दरख्तों के तले रक्स-ए-सबा होता था
सूखे पत्तों का बरसना भी वहां देख आएँ

अब फ़रिश्तों के सिवा कोई न आता होगा
कौन देता है ख़राबों में अजाँ देख आएँ

मुद्दतों ब'अद मुहाजिर की तरह आये हैं
रूठ जाये न खंडर आओ मियाँ देख आएँ
</poem>
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