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17:16, 24 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
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|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
बंजारों से डरने वालों लो हम अपनी बस्ती छोड़ चले
आगे आगे चीख़ रहा है सहरा का इक ज़र्द सफ़र
दरिया जाने साहिल जाने हम तो कश्ती छोड़ चले
मिट्टी के अम्बार के नीचे डूब गया मुस्तक़बिल भी
दीवारों ने देखा होगा बच्चे तख्ती छोड़ चले
दुनिया रखे चाहे फेंके ये है पड़ी ज़म्बिल-ए-सुख़न
हमने जितनी पूँजी जोड़ी रत्ती रत्ती छोड़ चले
साड़ी उम्र गँवा दी 'क़ैसर'दो गज़ मिट्टी हाथ लगी
कितनी महँगी चीज़ थी दुनिया कितनी सस्ती छोड़ चले
</poem>
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