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<poem>दिल बे-तब-ओ-ताब हो गया है
आईना ख़राब हो गया है

हर शख्स है इश्तिहार अपना
हर चेहरा क़िताब हो गया है

हर सांस से आ रही हैं लपकें
हर लम्हा अज़ाब हो गया है

जिस दिन से बने हो तुम मसीहा
हाल और ख़राब हो गया है

होटों पे खिला हुआ तबस्सुम
ज़ख्मों की नक़ाब हो गया है

सोचा था तो इश्क़ था हक़ीक़त
देखा है तो ख़्वाब हो गया है

'क़ैसर' गम-ए-ज़िन्दगी सिमट कर
इक जाम-ए-शराब हो गया है
</poem>
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