Changes

'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>

एक दिन हक़ीक़त की आग में वो जलते हैं
उम्र भर ख़यालों की गोद में जो पलते हैं

इस क़दर हुए रूस्वा, हम तिरी महब्बत में
सर उठा के चलते थे, सर झुका के चलते हैं

लोग हैं कि जैसे हों, बांस के घने जंगल
आग को जनम दे कर, ख़ुद ही उसमें जलते हैं

हम पुरानी यादों को, भूल तो गए लेकिन
अब भी इन मज़ारों पर, कुछ चिराग़ जलते हैं

चाह कर भी हम जिनका, सर कुचल नहीं सकते
मन की आस्तीं में तो, ऐसे सांप पलते हैं

बस गये हैं हम “ज़ाहिद”, आ कर ऐसी नगरी में
रोज़ जिसकी गलियों से, ता‘ज़िये निकलते हैं
{{KKMeaning}}
</poem>