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मेरे ही आँगन / रामनरेश पाठक

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<poem>मेरे ही आँगन की एक पौध तुलसी की,
मेरे ही खेतों की एक नीड़ टेसू की,
दोनों के दोनों ही हुलसे हैं : मैं क्या करूँ ?

मेरी ही बारी में खड़ी फसल सरसों की,
मेरे ही आसपास कड़ी गजल पानों की,
दोनों ही सहजे हैं : मैं क्या करूँ ?

मेरे ही जंगल में घने पेड़ महुए के,
मेरे ही पिछवाड़े झुरमुट झुर बंसवट के
दोनों ही लहसे हैं : मैं क्या करूँ ?

मेरे ही अधरों पर सोने की मुरली है,
मेरे ही चौरे पार मिट्टी की कलशी है,
दोनों ही बहसे हैं : मैं क्या करूँ ?

मेरे ही पास एक गीत की पिटारी है,
मेरे ही पास आज महल है, अंटारी है,
दोनों ही बतसे हैं : मैं क्या करूँ ?
</poem>
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