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<poem>कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन

कामिल रेहबर क़ातिल रेहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुशमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

उमरें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक इश्क़ का बचपन

इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन

खै़र मिज़ाज-ए-हुस्न की या-रब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन

आ कि न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा जिस्म है मदफ़न

तुझ सा हसीं और ख़ून ए मोहब्बत
वहम है शायद सुर्ख़ी-ए-दामन

बर्क-ए-हवादिस अल्लाह अल्लाह
झूम रही है शाख़-ए-नशेमन

तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ
और बढ़ा दी शौक़ की उलझन

रहमत होगी तालिब-ए-इस्याँ
रश्क करेगी पाकिए-दामन

दिल कि मुजस्सम आईना-सामाँ
और वो ज़ालिम आईना-दुश्मन

बैठे हम हर बज़्म में लेकिन
झाड के उट्ठे अपना दामन

हस्ती-ए-शाएर अल्लाह अल्लाह
हुश्न की मंज़िल इश्क़ का मस्कन

रंगीं फितरत सादा तबीअत
फ़र्श-नशीं और अर्श-नशेमन

काम अधूरा और आज़ादी
नाम बड़े और थोड़े दर्शन

शमअ है लेकिन धुंधली धुंधली
साया है लेकिन रोशन रोशन

काँटों का भी हक़ है कुछ आखि़र
कौन छुड़ाए अपना दामन

चलती फिरती छाँव है प्यारे
किस का सहरा कैसा गुलशन

</poem>
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