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22:42, 27 नवम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मुकेश चन्द्र पाण्डेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}
<poem>हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ,
आज तक दुनिया भर में हो चुकी
सभी क्रांति की कोशिशों का
एक निर्विवाद पक्षधर हूँ।
मैं आज भी तेज़ रफ़्तार वाहनों के समान्तर
मीलों चलता हूँ और कई बार तो रफ़्तार भी दुगुनी कर देता हूँ,
भागने लगता हूँ, लम्बी छलांगें भरता हूँ
सोच कर कि
"हरा सकता हूँ इन्हें पैदल ही।"
मैं लगभग ३३७ साल पहले पहाड़ों के
किसी छोटे से गावं में सूख चुके नौले
का शोक अब तक मनाता आ रहा हूँ।
और आज भी कभी नुकीले पत्थर से
उसकी सीर खरोंचने लगता हूँ
सोच कर कि
"अवसादों (जीवन में अवसादों का होना आवश्यक है) की दीर्घायु के लिए
रिसाव का होना आवश्यक है।"
मैं पथ पर जब-जब देखता हूँ कोई भी पागल,
उसका मनोविश्लेषण करने लगता हूँ,
वो सचेत हो जाता है, मुझ पर पथराव करता है,
और अब मैं विज्ञ हूँ, ज़ोर से हँसता हूँ
सोच कर कि
"एकाग्रता के भंग होते ही अंधकारमय हो जाता है बौद्धित्व।"
मैं घूरता हूँ बदसूरत पत्थरों के ढेर में दशकों पहले
लुप्त हो चुकी एक प्राचीन नदी,
और उसके अस्तित्व को पुनः जागृत कर देता हूँ
सोच कर कि
"दो पत्थरों को घंटों घिस कर पैदा कर सकता हूँ उनसे नमी।"
मैं आज भी रोता हूँ फूट-फूट कर
अपनी सभी "सफलताओं" पर।
क्षण भर के उबाल से पैदा हुई उम्मीद
को उसी क्षण में पूरा जी लेता हूँ,
और फिर कर देता हूँ उसे क़त्ल खुद-ब-खुद
सभी तथ्यों, सुरागों को भी उसी वक़्त मिटा देता हूँ
और अब मैं अकेला चश्मदीद शेष हूँ,
एक क्षण पूर्व "जी" गयी अपनी सबसे सफल क्रांति का।
हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ मैंने देखे हैं कई-कई पल, घंटे, दिन, साल, दशक,
मौसम, स्व्भाव और मनुष्य बदलते हुए....</poem>