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22:54, 27 नवम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अनुपमा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}
<poem>इंसानों की बस्ती
पूरी की पूरी खाली थी...
उस जमी हुई भीड़ में
सब पराये थे...
आज वो
सब अजनबी थे...
कल जिनके अपनेपन पर
हम भरमाये थे...
काँप गया मन
जिन आहटों से...
देखा तो जाना
वो अपने ही साये थे...
मोड़ आ गया
चलते चलते...
बादल
बेतहाशा छाये थे...
भींगे हुए थे भीतर से आकंठ
और क्या भींगते
उस अनमनी सी बारिश में...
इससे पहले की बरसता आकाश
हम अपनी छत के नीचे
लौट आये थे... !!</poem>
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