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10:06, 13 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|अनुवादक=
|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>कभी सागर-पार नावें
कभी सागर-तीर
टापुओं पर
नींद-डूबी हैं हवाएँ
ऊँघती चट्टान
चीटियों के बिल घरों में
खोजते पहचान
लोग रहते पाँव में
बाँधे हुए जंजीर
दिन खजूरों के सिरों पर
ढूँढ़ते हैं ओट
पाँव में फिर सीढ़ियों पर
लग गयी है चोट
घाव चाहे ये नये हैं
है पुरानी पीर
आग की पगडंडियाँ हैं
धुएँ के मस्तूल
आदतें हैं जंगलों की
जल रहे हैं फूल
हो गयीं बदरंग नावें
क्या करें आखीर
</poem>
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