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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>पनघट सूने
सोनचिरइया उतरी औघट घाट

पाँव-तले रेतीले सागर
सूखे बंजर खेत
सूने खलिहानों में बैठे
लोग फाँकते रेत

सुनते
ऊँची और हो गयी राजाजी की लाट

गीली आँखों देख रहे हैं
पीले चेहरे रात
दिन की चौहद्दी में सिमटी
युगों पुरानी बात

उठा-पटक के
दाँव वही हैं - पिछला धोबीपाट

आसमान से कोहरे लटके
घनी हो गयी नींद
नये शिकारी
गौरइया के
नीड़ रहे हैं बींध

उलटी बस्ती
सबके सिर पर लदी हुई है खाट
</poem>
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