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11:41, 13 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|अनुवादक=
|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>पानी में आग लगी
पनघट चुप खड़े रहे
बालू में गड़े रहे
लपटों में घूम-घूम
मछली के पाँव जले
झुलसी चट्टानों को
राख मिली नाव-तले
अँधियारी घाटी में
सीपी-दिन पड़े रहे
बालू में गड़े रहे
बगुलों की टोली ने
सारे जल नाप लिये
धुंध-घिरी लहरों को
पंखों से ढाँप लिये
मूँगे के टापू पर
लंगर बन अड़े रहे
बालू में गड़े रहे
</poem>
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