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कमाल की औरतें ९ / शैलजा पाठक

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<poem>कान से कम सुनने वाली औरतें
जबान से ’ज्यादा बोलती हैं
इतना कि कभी-कभी आप झल्लाकर बोल सकते हैं
अरे! पहले सुनो फिर बोलो...

कान से कम सुनती हुई वो आहटों पर सचेत हुई जाती हैं
कि लगता है कोई आया...कुछ गिरा...कोई आवाज शायद
पर ऐसा कुछ नहीं होता
उनके मन के किनारों से टकराती उनकी सोच भर है...

चिल्लाकर करते हैं बातें ƒघर के लोग
फिर इशारे से पूछते और हँस पड़ते
भुनभुनाती हैं ƒघर में बची जवान औरतें
और मुंह में आंचल ठूस हँसती भी हैं कई बार
और मटक कर बोलती हैं...
अरे ऐसा नहीं वैसा बोला गया...

इनके आस-पास एक सन्नाटा इकट्ठा होता रहता है
ये निरीह सी हमें होंठ हिलाता हुआ देखती हैं
अंदाजे से समझती हैं पर कुछ नहीं बोलती

ये पेड़-पौधों पर मिट्टी डालती हैं, जड़ें खोदती हैं, बांधती हैं
ये दीवारों पर जम जाती हैं बरसों की धूल की तरह
ये बार-बार मर जाने की बात कहती हैं
'अब मर गया है कान...फिर आंख
फिर हाथ-पैर देने लगेंगे जवाब'
का डर इन्हें मारता है हर पल

कितने घरों में हैं कान से कम सुनने वाली औरतें
आंख से ना देखने वाली दुनिया हो ना हो
दिल से महसूसने वाले इंसान भी नहीं बचे €क्या?
हम कमजोरियों का मजाक उड़ाते हुए
सबसे ’यादा मरे हुए लोग हैं

ये कम सुनने वाली औरतें
एकदम से सुन लेती हैं तुम्हारी भूख
झट पहचान जाती हैं तुम्हारी तकलीफ
बिना बोले लाकर पकड़ा देती हैं पानी का गिलास
तुम्हारी थकी चप्पलों की आवाज़ सुन लेती हैं
तुम्हारे दिन भर के थके शरीर की अनकही भी सुन लेती हैं
कहती हैं, आराम कर लो, सो जाओ, काम कल कर लेना

ये कम सुनने वाली औरतें बड़ी तेज़ी से
तुम्हारी चुŒपी में ƒघोल रही हैं अपनी आवाज़
अपनी जरूरतों को कम कर रही हैं
ये कम सुनने वाली औरतें
ƒघर के आंगन में मुह ढंके सो नहीं रहीं
ये रो रहीं कि कुछ और सुन लेती तुम्हें
पर तुम्हारी आवाज़ नहीं आती इन तक
इनके सन्नाटे नहीं ƒघेरते तुम्हें
ये झुकी टहनी की टूटती कमजोर डाली सी हैं
चरमरा कर टूट जायेंगी
तुम सुन कर भी नहीं सुनोगे
ये अपनी आवाज़ को आटे में सान
रोटी में बेल...आग पर जला...अपना दिन बिताएंगी

पुराने आंगन में गूंजती है सोहर की आवाज़
पाजेब की रुनझुन

कम सुनने वाली औरतों ने जना था तुम्हें
बेहोश हालत में सुन लिया थी तुम्हरा पहला रोना
तुम्हें याद है आखिरी बार तुमने कब सुना था इन्हें?

तुम्हारी सांसों के आहट को सुनने वाली
औरतें तुम्हारी ही मां थी, बहन थी
कभी पत्नी थी, एक औरत थी
जो आंख से सुनती रही, समझती रही
आंख मूंद चुपचाप चली गईं
ये कमाल की औरतें...
आंख भर सोखती रही तुम्हारी आवाज़
तुम कान भर भी ना सुन सके।</poem>
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