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08:33, 20 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शैलजा पाठक
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<poem>रोज़ जब पीसती हूं हल्दी
बनाती हूं रोटी
करती हूं पूजा
जलाती हूं दीया
फीके में मिलाती हूं नमक
गरम होती खिड़कियों को
पहनाती हूं खस के भीगे कपड़े
मैं औरत होने के रहस्मय
अंधेरों में आंचल पोंछती हुई
बन जाती हूं जरा सी रौशनी
घर में तने से रहते हो तुम
मगन रहते हैं बचे नूडल्स खाते हुए
मैं एकांत की खिड़की में बैठ
अपनी हथेली पर उतरा पीलापन
आंख के खारेपन
आंचल से
उठते आटा मसाला कपूर की महक से
बेज़ार होती हूं
अपनी चुप्पियों में बार बार चौंक जाती हूं
ये सुनकर सुनो!
मेरी नज़रें आवाज़ की दिशा में
बड़ी बेसब्र सी भटकती है
काम खम हो गया है सारा
भरमाती है कोई मीठी पुकार
मैं तुलसी के भूरे हुए पत्तों को तोड़ रही हूं
कितना कम हरा बचा है।</poem>
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