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कमाल की औरतें २६ / शैलजा पाठक

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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>पेड़ छूती हूं तो पत्ते कांपते हैं
नदी पर रखती हूं हथेली तो गहरा जाते हैं ƒघाव
समंदर पर भाग रही हैं फरिश्तों की नौकाएं
उनके हाथ में है आखिरी सुनहरी मछली है
शीशे के ƒघरों...बंद मकानों से खुले पड़े ब€सों की
अंतरंग छातियों पर खुला मिलेगा आखिरी आंचल का छोर

अब मैं औरत कहती हूं विलुप्त हो जाती है ये जाति
लड़की कहते ही बाबा आखिरी सांस लेते हैं
खुली आंखों में तुम
एक-एक कर जलाओगे अपनों की चिता
कोई आंगन विछोह में नहीं विलापेगा

उƒघड़े शरीर पर तुम लिखना
अपनी सबसे शर्मनाक कहानी...
पत्ते लाल पड़ जायेंगे...
छातियों में सदियों के आंसू सूख जाने वाले हैं
बहुत हो गया...होता जा रहा है...तुम कितने बचे आदमी
कितनी बची औरतों को नोच खाओगे
इतिहास का सबसे बंजर समय है
और तुम सबसे जंगली जानवर।</poem>
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