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|संग्रह=राग हंसध्वनि / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - पांच</b>

<b>[ संध्या का समय - राजा ऋतुपर्ण की अश्वशाला में बाहुक का कक्ष | वार्ष्णेय, उनका सह-सारथी पास बैठा बाहुक से बातें कर रहा है ]</b>

<b>वार्ष्णेय -</b> : हाँ, बाहुक !
महाराज नल तो थे अद्वितीय
कोई नहीं है उनसा इस युग में |
अद्भुत था उनका कौशल हर विद्या में -
अश्वों को साधने - रथ के संचालन में
उनसा मैंने कोई नहीं देखा |
पाक-कला के भी वे, मित्र, सुनो
पंडित थे |
पता नहीं क्यों तुमको देखकर
याद अपने उन महाप्रभु की याद आती है |

कहाँ गये ... कोई नहीं जानता |

पुष्कर ने पाँसों से उन्हें छला -
युद्ध में पराजित करना उनको असंभव था |
हम सब के -
प्रजाजनों के तो वे, सच में, आराध्य थे |
शौर्य और विक्रम के वे थे साकार रूप
धर्म और वेदों के ज्ञाता भी अनुपमेय |
प्रीति और नीति के संयुत आदर्श थे -
अग्निदेव जैसे तेजस्वी थे
और वरुण जैसे थे कीर्तिवान |

क्या कहूँ ...
देव सदृश वे स्वामी कहाँ गये |

और महारानी भी अद्भुत थीं -
रूप-शील दोनों में अतुलनीय -
हम सब की माँ जैसी |
बाहुक, वे दोनों थे, सच में, आदर्श युगल |



<b>[नल के चेहरे पर भावों का प्रबल ऊहापोह होता है, किंतु वार्ष्णेय कुछ भावातिरेक के कारण और कुछ कक्ष में अंधकार के कारण उनके चेहरे को देख नहीं पाता है, भावावेश में बोलता जाता है ]</b>
मित्र ! कभी-कभी ...
नियति भी कैसे क्रूर खेल करती है
सुख में दुख रचती है बिना-बात |
एक दिवस की द्यूत-क्रीड़ा वह
और हुआ बरसों का उत्पीड़न हम सबको |

महाराज हारे सब राजपाट
और हुए निष्कासित राज्य से एक्वस्त्र |
अश्रुभरी वाणी में बोले थे मुझसे वे -
'वार्ष्णेय ! बाल-सखा तुम मेरे |
आज से...तुम मुक्त हुए
सेवा के दायित्त्व से |
अंतिम यह कृपा करो -
बच्चों को पहुँचा दो उनके ननिहाल तक ...

और नगर-द्वार पर छोड़ मुझे अश्रु-सिक्त
चले गये वे दोनों पति-पत्नी |
अंकित है उनकी अंतिम वह छवि
अब तक मेरे इन ...
अभागे मन में |

पता नहीं क्यों
तुमको देखकर बार-बार लगता है
जैसे कि स्वामी ही सामने उपस्थित हों |
भावुक-स्नेहिल हो
तुम भी उन जैसे ही -
अश्व-कला, रथ के संचालन में भी कुछ हद तक |
इसीलिए तुम्हें देख ...
द्रवित होता मन बार-बार |

अच्छा मैं चलता हूँ -
रात घिरी |
भेंट सुबह होगी कल |

<b>[ वार्ष्णेय के जाते ही नल बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं | उनका आत्मालाप चलता है ]</b>

<b>नल -</b> ( आत्मालाप) : वार्ष्णेय ! बाल-सखे !
सहज बुद्धि से तुमने मुझको पहचाना भी
फिर भी मैं अनचीन्हा ही रहा -
यही सही भी है, बन्धु !
मैं सचमुच वह नहीं
जिसे तुम अपना आराध्य-बन्धु कहते थे |
मैं तो हूँ प्रेत-छाया मात्र
उस निषधराज की
जिसके तुम बन्धु थे -
सखा थे -मित्र थे |

कर्कोटक ! नागदेव !
हूँ कृतज्ञ |
देह-र्रूप तुमने जो यह दिया
बल-सखा भी उससे भ्रमित हुआ |

कैसा उत्पीड़क था दंश ... तुम्हारा वह -
वह पीड़ा जहरीली व्याप रही
अभी तक रग-रग में |

दावानल वह प्रचंड -
वन पूरा अग्नि-स्नान करता था ...

<b>[ पारदर्शिका में दृश्य उभरता है | गहरे वन में मार्ग खोजते नल | एक ओर दावाग्नि धधक रही है | पशुओं के झुण्ड के झुण्ड उस ओर से दूसरी दिशाओं में भयभीत भागते दिखाई देते हैं | उनकी मिली-जुली चीखें वातावरण को और अधिक भयावह बना रही हैं | पशुओं, पेड़ों-पत्तों के झुलसने-जलने की चिरायंध सभी ओर भर रही है | तभी नल को एक आर्त्त स्वर सुनाई देता है ]</b>

<b>स्वर -</b> : महाराज! निषधराज!
रक्षा करें ... रक्षा करें...
होता है अग्निदाह
और मैं अपाहिज हूँ ...
इधर आयें ... कृपा करें|

<b>[ नल एक धधकते हुए वृक्ष-कुञ्ज की ओर देखते हैं, जहाँ से वह मानव-स्वर आ रहा है| वे अग्नि-मन्त्र का जाप करते हुए उस कुञ्ज में प्रवेश कर जाते हैं| अंदर उन्हें एक विशाल नागाकृति छटपटाती दिखाई देती है| नल स्तंभित होते हैं| मानव-स्वर में नाग उनसे कहता है ]</b>

<b>नागाकृति -</b> : महाराज!
शीघ्रता करें ...
देखें, मेरा शरीर झुलस रहा -
इस दहते कुञ्ज से निकालें मुझे ... बाहर ...
त्वरा करें|

<b>[ नल शीघ्रता से उसे उठाकर कुञ्ज से बाहर ले आते हैं; बाहर आते-आते नाग उनसे कहता है ]</b>

<b>नाग -</b> : निषधराज!
मैं हूँ कर्कोटक नाग -
तुमने उपकार किया
मैं कृतज्ञ|

और दस पग आगे मुझको ले चलो -
बस पूरे दस पग ही -
इसके अतिरिक्त नहीं ...
पग-पग गिनते चलो ... ...

<b>[ नल गिन-गिनकर एक-एक कदम रखते हैं| उनके दस की गिनती कहते ही नाग उन्हें डँस लेता है| नल स्तंभित- चकित जब तक कुछ सोच पाए, विष के प्रभाव से उनका शरीर नीला पड़ जाता है| ऐंठने भी लगता है --असह्य पीड़ा से वे चीत्कार कर उठते हैं| अपने शरीर में होते प्र्वर्त्नों को देखकर वे व्यथा से कहते हैं ]</b>

<b>नल -</b> : यह कैसा है प्रपंच, नागदेव!
यह क्या कर दिया तूने -
डंसा मुझे ...
अपने उपकारक को...
मेरी यह देह हुई जाती है कैसी कुरूप -
हाथ-पेर हुए भद्दे
त्वचा हुई खुरदुरी -
काली पड़ गयी देह जो थी देव-तुल्य अभी|
चेहरे पर धब्बे और दाने ये|

यह कैसा है किया अनर्थ, हाय!
देवो, यह कैसा दंड दिया है मुझको!
कौन से कुकर्म पूर्व-जन्मों के मेरे थे
जो फले मुझको इस रूप में!
यह पीड़ा और जलन है असह्य |

<b>कर्कोटक -</b> : राजन !
हों शांत ... धरें धीर ...
सोचें दुष्काल यह ...
धारें यह छद्म-रूप ... कुछ दिन को |

<b>(एक वस्त्र उन्हें देते हुए)</b> दिव्य-वस्त्र यह, राजन, स्वीकारें
पूर्वरूप अपना पा जायेंगे
जैसे ही धारेंगे अप इसे|

मेरा आशीष है -
पुण्योदय होने में देर नहीं
आप शीघ्र ही होंगे पूर्णकाम -
दमयन्ती-नल होंगे साथ फिर -
युग-युग तक चर्चा में
आप दोनों ही रहेंगे|

अच्छा, अब आज्ञा दें!

<b>[ कहते हुए अंतर्ध्यान हो जाता है | नल विस्मित उस दिशा में देखते रह जाते हैं | तभी उनके शरीर में एक तीव्र हलचल होती है - उनकी देह से एक भयंकर छायाकृति निकलती है| वह भयभीत कांपती हुई उन्हें नमन करके कहती है]</b>

<b>छायाकृति -</b> : निषधराज !
क्षमा करें ...
मैं ही हूँ वह पिशाच
बनकर दुर्भाग्य फला जो था कल आपको|
इतने दिनों देह में रहा हूँ मैं आपके
यही पुन्य किया है मैंने|

कलियुग हूँ ...
वरा आपको था जिस क्षण दमयन्ती ने
ईर्ष्या से, द्वेष से दग्ध हुए थे हम -
मैं और द्वापर|
लेने को उसका प्रतिकार रहे हम सचेष्ट|
बारह वर्ष की लंबी अवधि बाद
अवसर मिला था मुझे -
एक दिवस आप थे अशुद्ध
तभी संध्या थे लरने को बैठ गये|
वही छिद्र ... जिससे मैं आप में प्रविष्ट हुआ|

कर्कोटक नाग के
दाहक इस विष को मैं सह नहीं कर पा रहा -
शिरा-शिरा दहक रही ...
उससे भी बढकर है दाहक वह महाताप ...
अनुताप का ...
आप हुए और शुद्ध -
पुन्य फले आपके |

मेरा और द्वापर का ही संयुत षडयंत्र था :
पासों पर द्वापर का पहरा था -
इसीलिए दाँव सभी आपके पड़ते विपरीत थे|
पुष्कर तो माध्यम था केवल -
वास्तविक खिलाडी तो हम दोनों थे, राजन!

और कुछ दिनों का ही है आकुल दुर्योग यह ...
उसके उपरांत आप लौटेंगे निषधदेश सपरिवार
विजयी हो कीर्तिवान|
पापों से जन-जन के दहता मैं
किन्तु दाह वह तो ... मेरा भोजन है -
आज मुझे दहता अनुताप है -
युग-युग तक दहता रहूँगा मैं ...
पुण्य मानकर अपना|

<b>[ कलियुग वन में अग्निकांड से गहराए धुएँ के बादल में विलीन हो जाता है| पारदर्शिका समाप्त हो जाती है – नल का आत्मालाप फिर शुरू हो जाता है ]</b>

<b>नल -</b> ( आत्मालाप ) : नहीं...नहीं कलियुग !
तुम तो थे बस निमित्त -
है मनुष्य मुक्त कर्म में अपने -
कर्त्ता है पुरुष स्वयं
और सभी तत्त्व हैं निमित्त मात्र
कर्म के प्रयोजन के|
भ्रष्ट हुई थी मेरी ही बुद्धि -
दोष भाग्य को देना व्यर्थ है|

मुझको धिक्कार है !
देवों से स्पर्धा करने चला था मैं -
भूल गया मानव हूँ
फूला था गर्व से ... भ्रमित हुआ|
उनके वरदानों से यही समझ बैठा था
मैं हूँ हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ-
यही दंभ मेरा हो गया शत्रु|
मुझको धिक्कार है !

कैसी दुर्बुद्धि हुई -
अपनी दमयन्ती को संकट में छोड़ गया|
हाय ... !
वह पलायन अब हर पल है सालता
मेरे अंतर्मन को|
अपने ही आप से पलायन वह ...
मुझको धिक्कार है !

सत मेरा मुझको था छोड़ गया -
तेज, कीर्ति, बल-विक्रम सब कुछ सँग छोड़ गये|
अब केवल इन झूठे सपनों का आश्रय है|
हाय! ... हाय! ...
मुझको धिक्कार है !

<b>[ स्वयं को धिक्कारते हुए नल नींद में ड़ूब जाते हैं ]</b>
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