एक मात्र खिड़की हो <br>
जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को, <br>
::प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ, <br>--जिस —जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस <br>::पाता और पीता हूँ-- हूँ— <br>
जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ, <br>
--जिस —जिस में से ही <br>
मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ <br>
--जिस —जिस में से उलीच कर मैं <br>अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ-- हूँ— <br>
यह मैं कभी नहीं भूलता: <br>
क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर <br>
मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ-- हूँ— <br>कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ-- हूँ— <br>और तुम--तुम्हीं तुम—तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो <br>
तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने <br>
मेरे साथ हो।