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<poem>वह --
हर सुबह
मुंह-अँधेरे
चूल्हे के साथ जलती है
दाल की देगची में
बुद -बुद उबलती है
खाने की मेज़ पर
तरल होकर ढलती है.....
सबको खिलाती,
सबसे बाद खाती है

वह --
हर दोपहर
कभी न घिसने वाली शिला पर
सबके कपड़े धोती,
सहेलियों के दुःख पर
चुपके-चुपके रोती है

वह --
शाम ढले
बच्चों के कपड़े इस्तरी करते हुए
छोटी-छोटी प्रार्थनाएं रहती है
कि कहीं निगोड़ी बिजली न चली जाये। ..
ठीक उस समय
जब बचे विज्ञापन देखने में मग्न होते हैं

वह --
देर रात गये
चौके-बासन से निबटकर
हाथ पौंछते हुए
बिस्तर तक आती है
और नींद ओढ़ने से पहले
दो इस्पाती हथेलियों में
कैद हो जाती है। </poem>
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