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04:15, 25 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>अपना तो जन-जन दिखता है.
किसमें अपनापन दिखता है.
बारिश तो आती है पर क्या,
सावन में सावन दिखता है.
बच्चे तो दिखते हैं काफ़ी,
कितनों में बचपन दिखता है.
बिल्डिंग में कमरे ही कमरे,
गायब घर-आँगन दिखता है.
भीतर हैं गाँठें ही गाँठें,
बाहर गठबन्धन दिखता है.
</poem>