981 bytes added,
04:16, 25 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>घर से बाहर निकल के बैठेंगे
साथ अपनी ग़ज़ल के बैठेँगे.
शोरगुल है यहाँ बहुत ज़्यादा,
हम कहीं दूर चल के बैठेँगे.
जाम छलकेंगे उसकी आँखों से,
कब तलक हम सँभल के बैठेँगे.
मान लेता है ज़िद हमारी वो,
आज हम फिर मचल के बैठेँगे.
उसके दर पे हम आके बैठे हैं,
अब कहाँ और टल के बैठेँगे.
खोज लेगा ही खोजने वाला,
वेश कितने बदल के बैठेँगे.
</poem>