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आज सोमवार है / प्रदीप मिश्र

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<poem>
''' आज सोमवार है '''
 
साथ
उस चमक का
जो पहली मुलाक़ात पर ही
भर गयी निगाहों में
हुलास
उस पतवार का
जिसने मझधार में डगमगाती नइया को
लगाया पार
प्रकाश
उस किरण का
जो अँधेरे के खिलाफ़
फूटी पहली बार
आस्वाद
उस हवा का
जो ऐन दम घुटने से पहले
पहुँच गयी फेफड़ों में
विश्वास
उस स्वप्न का जो नींद टूटने के बाद
भी बना रहा आँखों में
सबकुछ
शामिल है मेरी टूटी बिखरी नींद में
मेरी नींद जहाँ स्वप्न मंगलमय हैं और
आज सोमवार है।
</poem>
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