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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - दो</b>

<b>[कृष्ण का रथ मथुरा को पारकर यमुना-तट स्थित वनखंडी से गुज़र रहा है | कृष्ण दारुक को रथ रोकने का आदेश देते हैं, रथ से उतरते हैं, थोड़ी दूर चलकर एक करील-कुञ्ज के पास ठिठककर खड़े हो जाते हैं]</b>

<b>कृष्ण (आत्मालाप) -</b> यही, हाँ, यही है वह कुञ्ज
जहाँ अंतिम विदाई ली थी मैंने राधा से-
अब भी है वैसा ही -
राधा की साँसों से बसा हुआ
मिठबोला अनुरोधी

वंशी ...
हाँ, वंशी का सुर अब भी
गूँज रहा आसपास...

<b>[वंशी की धुन तैरती हुई आती है | कृष्ण उसे पूरे मनोयोग से सुनते हैं | राधा-कृष्ण के अंतिम मिलन का दृश्य पारदर्शिका के रूप में उभरता है | कृष्ण एक ढोंके पर बैठे हुए बांसुरी बजा रहे हैं | राधा कृष्ण के घुटने से सिर टिकाए उनके चेहरे को अपलक निहार रही है | सद्य:रुदन के चिह्न उसके चेहरे पर अंकित हैं | अचानक कृष्ण वंशी-वादन रोककर राधा से कहते हैं | राधा जैसे किसी स्वप्न से एकाएक जाग जाती है]</b>

<b>कृष्ण -</b> राधन, यह मृगतृष्णा है नहीं -
यह तुम हो, यह मैं हूँ
वंशी के जादू से बँधे हुए हम दोनों
अलग-अलग और एक -
अचरज यह साँसों का व्यर्थ नहीं |
और नदी-तट का यह निभृत एकांत
और हम दोनों के बीच बना
अंतर-संवादों का इन्द्रधनुष पुल यह
ये भी हैं सत्य, सुनो |

किन्तु नहीं कुछ भी है अंतहीन
सब कुछ है अस्थिर-अस्थायी ही |
जीवन का क्रम ही कुछ ऐसा है -
बीतना नियम है इस सृष्टि का -
हम-तुम भी बीतेंगे |

पर मानो
ये जो हम दोनों के बीच बँधे
वंशी के सुर हैं
कभी नहीं बीतेंगे |
ये तो हैं शाश्वत-सनातन और युगातीत |
व्याख्या हैं ये अनादि सपनों की
जो देखे सृष्टि-पुरुष ने युग-युग में
कल्पों-मन्वन्तर के फेरे में |
हमने भी जादू के सुर-तानें-छंद रचे
कुछ पल को |
ये अनन्य सुर ही तो
होंगे पहचान, सुनो अपनी इस यात्रा के |
इनमें जो अनबूझा अचरज है
वही, सखी, काफी है
बाकी क्षण जीने को |

<b>राधा (सुबकते हुए) -</b> नहीं कनू !
नहीं...नहीं ...
निष्ठुर है -निर्मम है सत्य यह तुम्हारा |
कैसे जी पाऊँगी जीवन के बाकी क्षण
प्राणहीन तुम बिन |
ये निकुंज- नदी घाट
ये सारे स्थल एकांत के -
जादुई प्रसंगों के ये आतुर यात्रा-क्षण -
कैसे सह पाऊँगी एकाकी
यादों में इनके आमन्त्रण मैं |

सोचो तो -
वंशी-बिन क्रीड़ाएँ सपनों की ...
हाय, मैं क्या करूँ ...

<b>[बिलखने लगती है | कृष्ण उसे सांत्वना देते हुए कहते हैं]</b>

<b>कृष्ण -</b> राधे ! मन शांत करो !
सोचो तो
युगातीत संगी हम
हम दोनों अलग कभी होंगे क्या ?

टेर रहा मुझको है कर्म-यज्ञ -
मथुरा से आया यह आमन्त्रण
मेरे इस अवतरण की है पूर्वपीठिका |
वंशी तो राधा की
राधा के कान्हा की
संग में तुम्हारे ही गूँजेगी |
राधन !
तुम ही तो हो मेरी प्रेरणा
गीतों की- नर्तन की-
शाश्वती सोलहों कलाओं की |

मेरी यह थाती ...
नहीं... नहीं ... मैं स्वयं
सदा ही रहूँगा यहाँ |

<b>[राधा को बांसुरी देते हैं | राधा उसे अपने सीने से लगा लेती है | फिर एक सुखद मूर्च्छा में डूब जाती है | कृष्ण उसे उसी मूर्च्छा में छोड़ कुञ्ज से बाहर निकल जाते हैं | पारदर्शिका समाप्त होजाती है | कृष्ण अपने आत्मालाप में लौट आते हैं]</b>

हाँ, राधे !
लौटा हूँ देखो तो ...युग बीते |
मध्यांतर था यह ... लो, बीत गया |
उधर -घटे सारे सन्दर्भों में
तुम रहीं उपस्थित
साक्षी है मन मेरा |

कर्मों का बंधन ...
और क्या कहूँ...
मथुरा से लौट नहीं पाया मैं |
और दूर ... और दूर होता ही चला गया |

<b>[दृश्य धुंधला जाता है - कृष्ण का स्वर भी] </b>


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