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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - आठ</b>

<b>कथा वाचन</b> - तेरह वर्षों का अन्तराल -
अज्ञातवास पूरा करके लौटे पांडव
पर दुर्योधन ने हठ ठाना
सन्धि-दूत बन गये हस्तिनापुर कृष्ण
किन्तु वापस लौटे |

फिर दोनों ओर सजी सेनाएँ
हुआ युद्ध -
उस महासमर में कौरव सारे खेत रहे |
जो धर्मक्षेत्र था कुरुक्षेत्र
वह हुआ महाश्मशान घोर -
गीधों-कौओं-श्वानों-शृगाल का क्रीडास्थल |
धरती यों वीरविहीन हुई -
अट्ठारह दिन का महाकार हिंसक तांडव
वह कालपुरुष का प्रलय-पर्व –
सम्राट और सैनिक सब सोये
चिरनिद्रा में एक-साथ |
विधवाओं और अनाथों की वह हुई भूमि |

मानव दानव बन गया -
नियम सारे टूटे |

केवल पांडव ही बचे
किन्तु संतानहीन -
उत्तरा-गर्भ में
शिशु-भविष्य उनका पलता -
वह भी ब्रह्मास्त्र-प्रताड़ित है -
श्रीकृष्ण बचायेंगे उसको
बस यही आस |

है युद्धभूमि विकराल -
शवों पर शव हैं बिछे हुए |
कुरुकुल की सुकुमारी वधुएँ हैं खोज रहीं
अपने पतियों-सन्तानों को -भ्राताओं को -
है चारों ओर घोर रोदन का महापर्व |


<b>[दृश्य उभरता है - कौरव कुलवधुएँ इधर-उधर भटकती अपने संबंधियों के मृत शरीरों को खोज रही हैं | एक ओर गांधारी रक्तसनी भूमि पर निढाल बैठी है | पास में ही श्रीकृष्ण खड़े हैं | गांधारी के नेत्र पट्टी से ढँके हैं, किन्तु अंदर अत्यंत विचलित आँखों की उत्तेजना उस पट्टी के आवरण के नीचे से भी पता चल रही है | वैसे वह अपने पर नियंत्रण रखने का भरसक प्रयास कर रही है, किन्तु पुत्रवधुएँ के दारुण विलाप और बीच-बीच में उनमें से किसी के मूर्च्छित हो जाने के कारण वह अत्यंत विचलित और पीड़ित हो रही है, जो उसके चेहरे पर के तनाव और भिंची हुई मुट्ठियों और कसे-हुए होठों पर साफ़ झलक जाता है | कृष्ण गांधारी को संबोधित करते हैं]</b>

<b>कृष्ण -</b> माँ गांधारी !
यह रक्तपात - यह नरहिंसा
सब निश्चित था |
क्षत्रिय कुल का यह अहंकार
अभिमान-दर्प
कोलाहल खंडित सपनों का -
इनका होना था अंत यही |

वीरपुत्र
क्षत्रियकुल के अवतंश सभी -
नरश्रेष्ठ और योद्धा प्रवीण |
कुरुकुल के गौरव थे ये सब
पर दंभी थे -
अब देवलोक के हैं वासी |

क्या कहूँ और ...
बस धीर धरो -
सांत्वना इन्हें दो
अपनी वधुओं को. माँ, अब |

<b>गांधारी (कठोर स्वर में) -</b>
श्रीकृष्ण ! नहीं यह सत्य नहीं |
यह अहंकार क्या केवल कुरुकुल में था?
अन्याय किया दुर्योधन ने
पर क्या पांडव हें न्यायमूर्ति?

हैं पड़े पितामह उधर शरों की शैया पर -
क्या किया धर्म से उन्हें पराजित अर्जुन ने?
आचार्य द्रोण का शव
साक्षी देता है धर्मराज के वचनों की –
बलिहारी है उस धर्मराज की धर्मबुद्धि की -
जिसने छल रचा गुरू की हत्या का
वह भेद न कर पाया नर एवं कुंजर में |
यह जयद्रथ - मेरा जामाता
क्या मारा नहीं गया छल से,
जो रचा तुम्हीं ने था उसको भरमाने को |
उस और पड़ा है शव मेरे दु:शासन का -
टूटी भुजाओं से मुझे टेरता है रह-रह -
सीने से उसके फूटा था
जो गर्म लहू का फव्वारा
उसको पीकर मदमस्त हुआ था कौन, कहो -
वह किस पिशाच की लीला थी
बतलाओ तो |
यह कर्ण अजेय रहा था -
अद्भुत योद्धा था -
मरवाया तुमने उसको भी था शस्त्रहीन
जैसे कोई हो हिंसक पशु |
यह मुंडहीन है देह उसी की इधर पड़ी |
वह भूरिश्रवा - उसे भी तो था मारा गया
कपट से ही |

इस महायुद्ध में मर्यादाएँ सब टूटीं |
तुम कहते मुझसे धीर धरूँ -
कैसे बोलो ...
जंगल में ताल-किनारे सोया
चिरनिद्रा में दुर्योधन
टूटी जंघाओं की गाथा कहता मुझसे -
उसके माथे पर भीमसेन का पदाघात
अब तक चिह्नित |

तुम कहते इसको धर्मयुद्ध -
बलिहारी है !
श्रीकृष्ण, तुम्हीं इस न्याय-युद्ध के सृष्टा हो
कर्त्ता भी हो |
तुम हो दोषी इसके सारे अन्यायों के |

तुम तो हो प्रभु -
अवतार-पुरुष
तुम परे सभी संज्ञाओं से
तुमको दुख नहीं व्यापता है -
पर हम तो साधारण मानव -
सीमित मन से - हैं क्षुद्रबुद्धि |

मेरा कुल था कितना विशाल -
वह तो है नष्ट हुआ |
कुलवधुएँ मेरी बिलख रहीं संज्ञाविहीन |
यह सब कुछ देख रहे
फिर भी
तुम कहते मुझसे - धीर धरूँ |

तुमने देखा है कुरुपुत्रों का रक्तपात -
मेरा विकर्ण तो नहीं, सुनो, अपराधी था |
फिर उसे भीम ने क्यों मारा, बतलाओ तो |
तुम रहे देखते सब कुछ
फिर भी रहे अलग |
कहते तटस्थ हो तुम अपने को कैसे ... ...

<b>[बिलखने लगती है | कृष्ण उसे सांत्वना देने की चेष्टा करते हैं, पर वह स्वयं को नियंत्रित कर फिर कहती है]</b>

यह युद्ध तुम्हारे कुल का होता ...
तो बोलो
रह पाते तुम निस्पृह- असंग ?
पूरे कुल का यह महानाश ... ...
यह पीड़ा का अध्याय, काश, तुम भी जीते !

<b>[एकाएक गांधारी की मुख-भंगिमा भयावह हो जाती है | चेहरे की रेखाओं, मुट्ठी के तनाव में जैसे पीड़ा और आक्रोश केन्द्रित होकर तड़पने लगते हैं | उसका स्वर भी भर्राया हुआ -अस्थिर हो जाता है | फिर शब्द जैसे अचानक फट पड़े ज्वालामुखी के लावे के समान प्रवाहित होते हैं]</b>

हे वासुदेव !
मैं जिस पीड़ा के महाज्वाल से घिरी हुई
वह पीड़ा तुम भी झेलो -
यही है शाप तुम्हें !
अपराधी हो -
इस महानाश के तुम ही उत्तरदायी हो |
तुम थे समर्थ
चाहते अगर तो युद्ध रोक सकते थे तुम |
पांडव तुमसे ही बली हुए -
तुम उन्हें रोक सकते थे इस नरहिंसा से |

मैंने सतीत्त्व का पुण्य किया संचित जो भी
देती मैं उसी तपस के बल पर शाप तुम्हें -
छत्तीस बरस जब बीतेंगे
जब राशि-चक्र यह तीन बार पूरा होगा
यादव कुल भी तब ...
ऐसे ही... होगा अनाथ |
तुम स्वयं करोगे नाश कृष्ण, अपने कुल का |
सामूहिक हत्याओं के... उस दारुण क्षण में
होगे निरीह -
देवत्व भूल मानव की पीड़ा भोगेगे |

<b>[कहते-कहते जोरों से बिलखने लगती है - उसकी हिचकियाँ बंध जाती हैं | कृष्ण इसे संभालते हैं - दुलराते हैं - फिर कहते हैं]</b>

<b>कृष्ण -</b> यह शाप तुम्हारा
माँ, मुझको है शिरोधार्य -
मानव होने का -
मानव की पीर भोगने का
तुमने जो यह वरदान दिया
उसका स्वागत !
यादव-कुल भी है उद्धत
अभिमानी और हिंस्र भी है -
उसका भी नाश सुनिश्चित है |
माँ, तुमने दी मुझको करुणा
मैं धन्य हुआ !

<b>[गांधारी और भी अधिक बिलखने लगती है | तभी कृष्ण की बाँसुरी का स्वर गूँजता है और राधा की छायाकृति कृष्ण और गांधारी के सम्मिलित बिम्ब को पूरी तरह समेट लेती है | गांधारी के चेहरे पर राधा का चेहरा उभर आता है और वह कृष्णमय हो जाती है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - यह भी राधा का एक रूप -
माँ की पीड़ा का - करुणा का |

पूरी मानवता में यह तो है व्याप रहा -
सब हैं संतानें इस माँ की
पर विचलित होकर सीमित हो जाती है यह |
करुणा की होती मूर्ति
और पछताती है
फिर से समग्र हो जाती है |

यह लौकिक राधा- भाव सृष्टि की माया है |

<b>[कथा वाचन की समाप्ति के साथ ही पूर्व-दृश्य फिर से उभर आता है]</b>

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