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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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गौतम, मेरे अज़ीज़, बड़ी खूबसूरत शायरी करते हैं | पहले-पहल जब उनके अशआर सुनने का मौक़ा आया, तो मैंने उन्हें संजीदगी से नहीं लिया... कहाँ फ़ौज, महाज़, दुश्मन, हथियार और कहाँ ग़ज़ल की नर्म खुनक चाँदनी, महबूब की सिसकियाँ और इश्क़ की सरगोशियाँ | लेकिन मुझे ख़ुशी है, मेरा अंदाज़ा ग़लत साबित हुआ | उनकी ग़ज़लों का मसव्वदा “पाल ले इक रोग नादां” देखा, शायरी पढ़ी तो पाया कि उनके यहाँ ग़ज़ल अपनी तमामतर रआनाइयों और नज़ाकतों के साथ मौजूद है | मुझे ऐतराफ़ है कि ग़ज़ल किसी की जागीर नहीं और ये भी कि महाज़-ए-जंग के हौलनाक माहौल में भी दिल की दुनिया में यादों का चरागां हो सकता है और गोलियों की सनसनाहट में भी सिसकियों और सरगोशियों को सुना जा सकता है |

गौतम की ग़ज़लों में शुरू से आख़िर तक एक उदासी की फ़ज़ा पसरी हुई है और इस रूमानी उदासी से ग़ज़ल का आँगन महक रहा है | सुविख्यात इंगलिश पोएट, शैले की बात पर यक़ीन और मज़बूत हो जाता है कि “हमारे खूबसूरत तरीन नग़में वो हैं, जिनमें उदासियों और मायूसियों का डेरा है” | उनके मसव्वदे से चंद अशआर उठाकर गुनगुनाऊँ तो जैसे कोई उदास सी शहनाई तिर उठती है मेरे इर्द-गिर्द...

उदासी एक लम्हे पर गिरी थी
सदी का बोझ है पसरा हुआ-सा

सुबह दो ख़ामोशियों को चाय पीता देखकर
गुनगुनाती धूप उतरी प्यालियों में आ गई


लुत्फ़ अब देने लगी है ये उदासी भी मुझे
शुक्रिया तेरा कि तूने जो किया, अच्छा किया

रात ने यादों के माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, ऊंगलियों में आ गई

सोचता होगा मुझे वो बैठकर तन्हा कहीं
चाँद निकला और मुझको ज़ोर की हिचकी हुई

एक बस ख़ामोश-से लम्हे की ख़्वाहिश ही तो थी
और उसी ख़्वाहिश ने लेकिन शोर फिर कितना किया

दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चोट की हर टीस अब तो इक नई सिसकी हुई

चाँद उछल कर आ जाता है जब कमरे में रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं

भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली


गौतम की शायरी में मुझे नासिर काज़मी की शायरी की “उदास बरखा” जा-ब-जा बिखरी नज़र आती है | मुझे उनकी शायरी में जहाँ बशीर बद्र के महबूब का ख़ूबसूरत, मासूम और सलोना चेहरा, उदास मुस्कुराहट और आँचल का नाज़ुक लम्स भी महसूस होता है, वहीं फ़िराक़ गोरखपुरी की शोख़-सी उदासी भी मयस्सर होती है | मालूम होता है, गौतम की ग़ज़लों की सरहदें नासीर, बशीर और फ़िराक़ की शायरी की सरहदों से बहुत दूर नहीं है |

गौतम की शायरी महज रूमान परवरी से इबारत नहीं, उनके यहाँ मौजूदा माहौल की बेचैनी , घुटन और आम आदमी की मजबूरी और बेकसी भी बड़ी शिद्दत से अपनी उपस्थिती ज़ाहिर करती हैं | उनकी ग़ज़लों में ये शदीद ख़्वाहिश भी साँस लेती नज़र आती है कि आम आदमी की तकलीफ़ों का ख़ात्मा होना चाहिये...

धूप के तेवर तो बढ़ते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
अब रहम धरती पे हो, अब बारिशों की बात हो

‘यूँ ही चलता है’ ये कहकर कब तलक सहते रहें
कुछ नए रस्ते, नई कुछ कोशिशों की बात हो

अम्बर की साजिशों पर हर सिम्त ख़ामुशी थी
धरती की एक उफ़ पर क्यूँ आया ज़लज़ला है

पर्दे की कहानी है ये पर्दे की ज़ुबानी
बस इसलिए पर्दे को उठाया न गया है

हैं भेद कई अब भी छुपे क़ैद रपट में
कुछ नाम थे शामिल सो दिखाया न गया है

धुआँ, गुबार, परिंदे, तपिश, घुटन, ख़ुशबू
हैं बोझ कितने हवा की थकान में शामिल


गौतम फ़ौजी हैं और महाज़-ए-जंग पर कमरबस्त और मुस्तईद हैं, लेकिन वो बेदार ज़हन और दर्दमन्द दिल रखते हैं | उन्हें ये अहसास भी है कि जंगों से मसाइल हल नहीं होते | साहिर लुधियानवी ने कहीं कहा है “जंग तो ख़ुद की एक मसअला है / जंग क्या मसअलों का हल देगी” .... गौतम कहते हैं

मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

...मेरे नज़दीक गौतम का ये शेर साहिर के शेर से ज़्यादा तासीर रखता है | “मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और” में गुस्सा, बेजारी, झुंझलाहट, माओं-बेटियों-बहनों का इंतज़ार, सरहद पर जान लेने और देने पर आमादगी और न जाने क्या-क्या है | महज एक शेर ये गौतम की क़लम को नई बुलंदियाँ देता है |

लेकिन इन सबसे हटकर जो बात गौतम को अपने समकालीन शायरों से अलग करती है, एक नई पहचान देती है वो है गौतम की इमेजरी...रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें और आम ज़ुबान में पुकारी जाने वाली बातें जैसे कि ‘चाय’, ‘मोबाइल’, ‘कैडबरी’, हैंग-ओवर’, ‘बालकोनी’ वगैरह कुछ इस कदर उनके अशआर में घुल-मिल कर उभरते हैं कि बस दाद निकलती रहती है पढ़ने के बाद | ज़ुबान की नोक-पलक सँवारकर और फ़न की बारीकियों की बेहतर समझ के सहारे मुझे यक़ीन है, गौतम की ग़ज़लों की गूँज बहुत दूर और बहुत देर तक सुनी जा सकेगी |

'''-[[डॉ राहत इंदौरी]]'''
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