उदासी एक लम्हे पर गिरी थी
सदी का बोझ है पसरा हुआ-सा
सुबह दो ख़ामोशियों को चाय पीता देखकर
गुनगुनाती धूप उतरी प्यालियों में आ गई
लुत्फ़ अब देने लगी है ये उदासी भी मुझे
शुक्रिया तेरा कि तूने जो किया, अच्छा किया
रात ने यादों के माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, ऊंगलियों में आ गई
सोचता होगा मुझे वो बैठकर तन्हा कहीं
चाँद निकला और मुझको ज़ोर की हिचकी हुई
एक बस ख़ामोश-से लम्हे की ख़्वाहिश ही तो थी
और उसी ख़्वाहिश ने लेकिन शोर फिर कितना किया
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चोट की हर टीस अब तो इक नई सिसकी हुई
चाँद उछल कर आ जाता है जब कमरे में रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
गौतम की शायरी महज रूमान परवरी से इबारत नहीं, उनके यहाँ मौजूदा माहौल की बेचैनी , घुटन और आम आदमी की मजबूरी और बेकसी भी बड़ी शिद्दत से अपनी उपस्थिती ज़ाहिर करती हैं | उनकी ग़ज़लों में ये शदीद ख़्वाहिश भी साँस लेती नज़र आती है कि आम आदमी की तकलीफ़ों का ख़ात्मा होना चाहिये...
धूप के तेवर तो बढ़ते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
अब रहम धरती पे हो, अब बारिशों की बात हो
‘यूँ ही चलता है’ ये कहकर कब तलक सहते रहें
कुछ नए रस्ते, नई कुछ कोशिशों की बात हो
अम्बर की साजिशों पर हर सिम्त ख़ामुशी थी
धरती की एक उफ़ पर क्यूँ आया ज़लज़ला है
पर्दे की कहानी है ये पर्दे की ज़ुबानी
बस इसलिए पर्दे को उठाया न गया है
हैं भेद कई अब भी छुपे क़ैद रपट में
कुछ नाम थे शामिल सो दिखाया न गया है
धुआँ, गुबार, परिंदे, तपिश, घुटन, ख़ुशबू
हैं बोझ कितने हवा की थकान में शामिल
गौतम फ़ौजी हैं और महाज़-ए-जंग पर कमरबस्त और मुस्तईद हैं, लेकिन वो बेदार ज़हन और दर्दमन्द दिल रखते हैं | उन्हें ये अहसास भी है कि जंगों से मसाइल हल नहीं होते | साहिर लुधियानवी ने कहीं कहा है “जंग तो ख़ुद की एक मसअला है / जंग क्या मसअलों का हल देगी” .... गौतम कहते हैं
मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से