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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
समाचार में सनसनी होती है
ख़बर हाशिये पर खड़ी होती है

हुआ जुगनुओं का इरादा बुलंद
लो बस्ती में अब रौशनी होती है

समन्दर की लहरें भिगोती रहे
किनारे की क्या तिश्नगी होती है ?

सुलगती हुई उम्र की धूप में
यूँ ही ज़िन्दगी साँवली होती है

वो करते हैं जब भी मेरा तज़किरा
पुरानी कहानी नयी होती है

पिघलता है पर्वत कहीं कोई इक
कहीं इक उफनती नदी होती है

वो छज्जे से छुप के तेरा देखना
जो सोचूँ, तो इक गुदगुदी होती है

उबलते ख़यालों में तप कर ज़रा
जुनूँ जब उठे, शायरी होती है



(आधारशिला, 2013)
<poem>
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