1,885 bytes added,
13:27, 14 फ़रवरी 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हर्फ़ सारे खो गये औ' है कलम बहकी हुई
तेरे बिन ये ज़िंदगी लगती है कुछ ठिठकी हुई
सोचता होगा वो मुझको बैठ कर तन्हा कहीं
चाँद निकला और मुझको ज़ोर की हिचकी हुई
सिर्फ बिखरा है अँधेरा अब गली में हर तरफ़
जब से कोने के मकां की बंद वो खिड़की हुई
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चोट की हर टीस अब तो इक नई सिसकी हुई
काँपती रहती हैं कोहरे में ठिठुरती झुग्गियाँ
धूप महलों में न जाने कब से है अटकी हुई
हुक्मरानों से कभी रौशन था अपना मुल्क ये
छोड़िये उस बात को वो बात अब कल की हुई
डालियाँ जितनी तनी थीं, आँधियों ने तोड़ दीं
पेड़ पर बाकी है वो, जो शाख़ थी लचकी हुई
जो धधकती थी कभी सीने में तेरे औ’ मेरे
चल, हवा दें फिर से उसको, आग वो हल्की हुई
(कादम्बिनी, मई 2012)