1,737 bytes added,
11:34, 1 मार्च 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
| रचनाकार= {{KKGlobal}}
{{KKRachna
| रचनाकार= मनोज चौहान
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं पाता हूँ कभी – कभार
एक ठहराव अपने भीतर
कर देना चाहता हूँ कलमबध
अनेक पीड़ाओं को
और साथ ही
अकस्मात उभर आये
अपरिभाषित खालीपन को l
कलम को कागज पर टिका कर
देना चाहता हूँ मूर्त रूप शब्दों का
मगर सियाचिन के ग्लेशियरों की मानिंद
शून्य हो जाता है जैसे तापमान भीतर का l
शब्द चाहते हैं आकार पाना
मगर जम जाते हैं जैसे
जहन में ही कहीं
कड़कड़ाती ठण्ड के
कोहरे की तरह l
भीतर का यह जमघट
बढ़ने लगता है जब कभी
ठोस रूप लेकर
तो महसूस करता हूँ
एक भारीपन अंदर तक
चाहता हूँ कि
यह गतिशील और प्रवाहमान रहे
सदैव ही l
ये ठहराव कष्टकारक है
बहना पर्याय है जीवन का
भीतर की सरिता का बहाव ही
तय करेगा
नए रास्ते
नए आयाम
और नई मंजिलें ...!
</poem>