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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
कुछ करवटों के सिलसिले, इक रतजगा ठिठका हुआ
मैं नींद हूँ उचटी हुई, तू ख़्वाब है चटका हुआ

इक लम्स की तासीर है तपती हुई, जलती हुई
चिंगारियाँ सुलगी हुईं, शोला कोई भड़का हुआ

इक रात रिमझिम बारिशों में देर तक भीगी हुई
इक दिन परेशां गर्मिए-जज़्बात से दहका हुआ

कुछ वहशतों की वुसअतें, पहलू-नशीं कुछ उलफतें
है उम्र का ये मोड़ आख़िर इतना क्यूँ बहका हुआ

ये जो रगों में दौड़ता है इक नशा-सा रात-दिन
इक उन्स है चढ़ता हुआ, इक इश्क़ है छलका हुआ

जानिब मेरे अब दो क़दम तुम भी चलो तो बात हो
हूँ इक सदी से बीच रस्ते में तेरे अटका हुआ

दिल थाम कर उसको कहा “हो जा मेरा !” तो नाज़ से
उसने कहा “पगले ! यहाँ पर कौन कब किसका हुआ ?”
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