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12:33, 30 अप्रैल 2016 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मंगत बादल
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<poem>
कियां सहेजां सपना बां री,
बिखरी लड़ी-लड़ी !
कुण नै देवां दोस ?
कबीरा-
कूवै भांग पड़ी ।
भला बखत हा
थे तो कैग्या
आखर-आखर अणमोल ।
सांच-झूठ
अेक लागै अब
मचरी रांपट-रोळ ।
म्हांरो डांव आवै कोनी पण,
डांई देता थकग्या
बंा रो निसानो चूकै कोनी,
खेलै मार-दड़ी ।
चाल-चाल पग थकग्या,
चादर लीरम-लीर हुई ।
ढाई आखर भण्यां बिना,
जिनगाणी भीर हुई ।
रोय-रोय जद बिथा कही,
म्हैं गीतां में-
सुण-सुण दुनियां मजा लेवै
अर हांसै खड़ी-खड़ी ।
</poem>