|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
नवम सर्ग
धीरे से दिनकर द्वार खोल
प्राची से निकला लाल–लाल।
गह्वर के भीतर छिपी निशा
बिछ गया अचल पर किरण–जाल॥1॥
<font size=4>नवम सर्ग</font><br><br>सन–सन–सन–सन–सन चला पवन मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल। बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप धू–धू करती चल पड़ी धूल॥2॥
धीरे से दिनकर द्वार खोल <Br/>प्राची से निकला लाल–लाल। <Br/>गह्वर के भीतर छिपी निशा <Br/>बिछ गया अचल पर किरण–जाल।।1।। <Br/><Br/>सन–सन–सन–सन–सन चला पवन <Br/>मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल। <Br/>बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप <Br/>धू–धू करती चल पड़ी धूल।।2।। <Br/><Br/>तन झुलस रही थीं लू–लपटें <Br/>तरू–तरू पद में लिपटी छाया। <Br/>तर–तर चल रहा पसीना था <Br/>छन–छन जलती जग की काया।।3।। <Br/><Br/>काया॥3॥ पड़ गया कहीं दोपहरी में <Br/>वह तृषित पथिक हुन गया वहीं। <Br/>गिर गया कहीं कन भूतल पर <Br/>वह भूभुर में भुन गया वहीं।।4।। <Br/><Br/>वहीं॥4॥ विधु के वियोग से विकल मूक <Br/>नभ जल रहा था अपाा अपार उर। <Br/>जलती थी धरती तवा सदृश¸ <Br/>पथ की रज भी थी बनी भउर।।5।। <Br/><Br/>भउर॥5॥ उस दोपहरी में चुपके से <Br/>खोते–खोते में चंचु खोल। <Br/>आतप के भय से बैठे थे <Br/>खग मौन–तपस्वी सम अबोल।।6।। <Br/><Br/>अबोल॥6॥ हर ओर नाचती दुपहरिया <Br/>मृग इधर–उधर थे डौक रहे। <Br/>जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़ <Br/>जल पी–पी पंखे हौक रहे।।7।। <Br/><Br/>रहे॥7॥ रवि आग उगलता था भू पर <Br/>अदहन सरिता–सागर अपार। <Br/>कर से चिनगारी फेंक–फेंक <Br/>जग फूंक फूँक रहा था बार–बार।।8।। <Br/><Br/>बार–बार॥8॥ गिरि के रोड़े अंगार बने <Br/>भुनते थे शेर कछारों में। <Br/>इससे भी ज्वाला अधिक रही <Br/>उन वीर–व्रती तलवारों में।।9।। <Br/><Br/>में॥9॥ आतप की ज्वाला से छिपकर <Br/>बैठे थे संगर–वीर भील। <Br/>पर्वत पर तरू की छाया में <Br/>थे बहस कर रहे रण धीर भील।।10। <Br/>भील॥10। उन्नत मस्तक कर कहते थे <Br/>ले–लेकर कुन्त कमान तीर। <Br/>मां माँ की रक्षा के लिए आज <Br/>अर्पण है यह नश्वर शरीर।।11।। <Br/><Br/>शरीर॥11॥ हम अपनी इन करवालों को <Br/>शोणित का पान करा देंगे। <Br/>हम काट–काटकर बैरी सिर <Br/>संगर–भू पर बिखरा देंगे।।12।। <Br/><Br/>देंगे॥12॥ हल्दीघाटी के प्रांगण में <Br/>हम लहू–लहू लहरा देंगे। <Br/>हम कोल–भील¸ हम कोल–भील <Br/>हम रक्त–ध्वजा फहरा देंगे।।13।। <Br/><Br/>देंगे॥13॥ यह कहते ही उन भीलों के <Br/>सिर पर भ्ौरव–रणभूत भौरव–रणभूत चढ़ा। <Br/>उनके उर का संगर–साहस <Br/>दूना–तिगुना–चौगुना बढ़ा।।14।। <Br/><Br/>बढ़ा॥14॥ इतने में उनके कानों में <Br/>भीषण आंधी सी हहराई। <Br/>मच गया अचल पर कोलाहल <Br/>सेना आई¸ सेना आई।।15।। <Br/><Br/>आई॥15॥ कितने पैदल कितने सवार <Br/>कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े। <Br/>कितनी सेना¸ कितने नायक¸ <Br/>कितने हाथी¸ कितने घोड़े।।16।। <Br/><Br/>घोड़े॥16॥ कितने हथियार लिये सैनिक <Br/>कितने सेनानी तोप लिये। <Br/>आते कितने झण्डे ले¸ ले <Br/>कितने राणा पर कोप किये।।17।। <Br/><Br/>किये॥17॥ कितने कर में करवाल लिये <Br/>कितने जन मुग्दर ढाल लिये। <Br/>कितने कण्टक–मय जाल लिये¸ <Br/>कितने लोहे के फाल लिये।।18।। <Br/><Br/>लिये॥18॥ कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸ <Br/>कितने बरछे ताजे ले¸ ले। <Br/>पावस–नद से उमड़े आते¸ <Br/>कितने मारू बाजे ले–ले।।19।। <Br/><Br/>ले–ले॥19॥ कितने देते पैतरा वीर <Br/>थे बने तुरग कितने समीर। <Br/>कितने भीषण–रव से मतंग <Br/>जग को करते आते अधीर।।20।। <Br/><Br/>अधीर॥20॥ देखी न सुनी न¸ किसी ने भी <Br/>टिड््डी–दल टिड्डी–दल सी इतनी सेना। <Br/>कल–कल करती¸ आगे बढ़ती <Br/>आती अरि की जितनी सेना।।21।। <Br/><Br/>सेना॥21॥ अजमेर नगर से चला तुरत <Br/>खमनौर–निकट बस गया मान। <Br/>बज उठा दमामा दम–दम–दम <Br/>गड़ गया अचल पर रण–निशान।।22 <Br/>रण–निशान॥22 भीषण–रव से रण–डंका के <Br/>थर–थर अवनी–तल थहर उठा। <Br/>गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण <Br/>घन–घोर–नाद से घहर उठा।।23।। <Br/><Br/>उठा॥23॥ बोले चिल्लाकर कोल–भील <Br/>तलवार उठा लो बढ़ आई। <Br/>मेरे शूरो¸ तैयार रहो <Br/>मुगलों की सेना चढ़ आई।।24।। <Br/><Br/>आई॥24॥ चमका–चमका असि बिजली सम <Br/>रंग दो शोणित से पर्वत कण। <Br/>जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश <Br/>दिखला दो वही भयानक रण।।25।। <Br/><Br/>रण॥25॥ हम सब पर अधिक भरोसा है <Br/>मेवाड़–देश के पानी का। <Br/>वीरो¸ निज को कुबार्न करी <Br/>है यही समय कुबार्नी का।।26।। <Br/><Br/>का॥26॥ भ्ौरव–धनु भौरव–धनु की टंकार करो <Br/>तम शेष सदृश फुंकार करो। <Br/>अपनी रक्षा के लिए उठो <Br/>अब एक बार हुंकार करो।।27।। <Br/><Br/>करो॥27॥ भीलों के कल–कल करने से <Br/>आया अरि–सेनाधीश सुना। <Br/>बढ़ गया अचानक पहले से <Br/>राणा का साहस बीस गुना।।28।। <Br/><Br/>गुना॥28॥ बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ <Br/>इस रण–वेला रमणीया में। <Br/>चाहे जिस हालत में जो हो <Br/>जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया में।।29।। <Br/><Br/>में॥29॥ जिस दिन के लिए जन्म भर से <Br/>देते आते रण–शिक्षा हम। <Br/>वह समय आ गया करते थे <Br/>जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा हम।।30।। <Br/><Br/>हम॥30॥ अब सावधान¸ अब सावधान¸ <Br/>वीरो¸ हो जाओ सावधान। <Br/>बदला लेने आ गया मान <Br/>कर दो उससे रण धमासान।।31।। <Br/><Br/>धमासान॥31॥ सुनकर सैनिक तनतना उठे <Br/>हाथी–हय–दल पनपना उठे। <Br/>हथियारों से भिड़ जाने को <Br/>हथियार सभी झनझना उठे।।32।। <Br/><Br/>उठे॥32॥ गनगना उठे सातंक लोक <Br/>तलवार म्यान से कढ़ते ही। <Br/>शूरों के रोएं रोएँ फड़क उठे <Br/>रण–मन्त्र वीर के पढ़ते ही।।33।। <Br/><Br/>ही॥33॥ अब से सैनिक राणा का <Br/>दरबार लगा रहता था। <Br/>दरबान महीधर बनकर <Br/>दिन–रात जगा रहता था।।34।। <Br/>था॥34॥ <Br/poem>