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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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ज़िन्दगी ,शराब की दुकान पे चली गई
कशमकश उठी-चली , उड़ान पे चली गई

हाय..बा-दिली कहाँ लुढ़क रही है बेसबब
देखते हैं आज किस ढलान पे चली गई

नफ़रतों का कारवाँ बढ़ा तो और बढ़ गया
रस्मो-राहियत अभी गठान पे चली गई

एक ही मिली कोई सुकून जिसके पास था
और कम्बख़त वो आसमान पे चली गई

दोज़खी से राब्ता कोई नहीं था ‘दीप’ जी !
क्या बताएँ ज़हनियत गुमान पे चली गई I
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