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16:30, 16 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
तोड़ो-तोड़ो , जितनी भी हैं अब तोड़ो
हद की आँखे खुलने तक..बेढब तोड़ो I
मज़हब केवल बाँट रहा है दुनिया को
माला-घंटी-मंदिर-मस्ज़िद सब तोड़ो I
आधी रात चलें तो , चलने पाएँ हम
करतूतों से लेकर हर करतब , तोड़ो I
देखो केवल तोड़-ताड़ के रखना मत
गड्ढे में दफ़ना के आना..जब तोड़ो I
ऐसे-वैसे , जल्दी-वल्दी मत करना
घात लगाओ ,मौक़ा देखो तब तोड़ो I
</poem>