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{{KKRachna
| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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जितना-जितना बहरा होता जाता हूँ
उतना-उतना गहरा होता जाता हूँ I

देख देख कर बच्चों की अठखेली को
मैं , दरिया से सहरा होता जाता हूँ I

माज़ी , दिल पे बोझ बढ़ाए जाता है
सर से पा तक दुहरा होता जाता हूँ I
</poem>