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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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<poem>
बहुत उकता गया जब शायरी से
लिपट कर रो पड़ा मैं ज़िन्दगी से

अभी कुछ दूर है शमशान लेकिन
बदन से राख झड़ती है अभी से

इसे भी ज़ब्त कहना ठीक होगा
बहुत चीख़ा हूँ मैं पर ख़ामुशी से

बस इसके बाद ही मीठी नदी है
कहा आवारगी ने तिश्नगी से

लगा है सोचने थोड़ा तो मुंसिफ
मेरे हक़ में तुम्हारी पैरवी से

मयस्सर हो गयीं शक़्लें हज़ारों
हुआ ये फ़ायदा बेचेहरगी से

सुनो वो दौर भी आएगा “कान्हा”
तकेगा हुस्न जब बेचारगी से
</poem>