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|रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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<poem>
एक डर सा लगा हुआ है मुझे
वो बिना शर्त चाहता है मुझे

खुल के रोने के दिन तमाम हुए
अब मिरा ज़ब्त देखना है मुझे

मर रहा हूँ इसी सुकून के साथ
साँस लेने का तजरुबा है मुझे

एक जां एक तन हैं हिज्र और मैं
तेरा आना भी अब सज़ा है मुझे

अब मैं ख़ामोश होने वाला हूँ
क्या कोई शख़्स सुन रहा है मुझे?

चुप रहा मैं इसी लिये ‘कान्हा’
मुझसे बेहतर वो जानता है मुझे

</poem>








प्रखर मालवीय 'कान्हा'