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22:49, 17 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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|संग्रह=
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<poem>
सागर भी तो क़तरा निकला
फिर आँखों से बहता निकला
बोलो अब तुम क्या कहते हो?
मैं इस बार भी सच्चा निकला
दिल तो खैर परीशां था ही,
ज़ह्न भी मेरा उलझा निकला
डूब गया शब के दरिया में
चाँद भी बस इक क़तरा निकला
दिल में लौटा शाम हुई तो
दर्द भी एक परिन्दा निकला
मुझसे किसने बातें की थीं
सन्नाटा तो गूंगा निकला
उसके आंसू, मेरी खुशियाँ
'ये सौदा भी महंगा निकला'
कान्हा' रोया आज मैं जी भर
दिल का इक इक काँटा निकला
</poem>