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जितना-जितना बहरा होता जाता हूँ / दीपक शर्मा 'दीप'
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18:40, 18 सितम्बर 2016
<poem>
जितना-जितना बहरा होता जाता हूँ
उतना-उतना गहरा होता जाता हूँ
I
देख
-
देख कर बच्चों की अठखेली कोमैं
,
दरिया से सहरा होता जाता हूँ
I
माज़ी
,
दिल पे बोझ बढ़ाए जाता हैसर से पा तक दुहरा होता जाता हूँ
I
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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