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हवा जब किसी की कहानी कहे हैनये मौसमों की ज़ुबानी कहे है दोस्त मेरे !
फ़साना लहर का जुड़ा है ज़मीं सेअच्छे लगते होअपनी आवाज बुलंद करते हुयेमुल्क के हर दूसरे मुद्दे परजब-तब, अक्सर हीकिशब्द तुम्हारे गुलाम हैंकिसमन्दर मगर आसमानी कहे कलम तुम्हारी है कनीज़
कटी रात सारी तेरी करवटों मेंबहुत भाते हो तुमकि ये सिलवटों की निशानी कहे है ओ कामरेड मेरे !कवायद करते हुयेसूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफबादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
नई बात बुरे तब भी नहीं लगते,यकीन जानो,जब तौलते हो अब नये गीत छेड़ोतुमचंद गिने-चुनों की कारगुजारियों परपूरी बिरादरी के वजन कोऔर तब भी नहींइंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जबदमकती वर्दी की कलफ़ में लगेगज़रती घड़ी हर पुरानी कहे है कुछ अनचाहे धब्बों पर
मुहल्ले की सारी गली मुझको घूरेबेशकहुई जब से बेटी सयानी कहे है शेष वर्दी कितनी हीदमक रही हो,तुम्हारी पारखी नजरेंढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
यहाँ ना गुज़ारा सियासत बिना अबपसंद आता हैमेरे मुल्क ये पैनापन तुम्हारीनजरों काकिप्रेरित होता हूँ मैं इनसेइन्हीं की राजधानी कहे है तर्ज परपूरे दिल्लीवालों कोबलात्कारी कहने के लिये
नहीं, मैं नहीं कहता,आँकड़े कहते हैं"रिवाजों मुल्क की राजधानी में होते हैंसबसे अधिक बलात्कार"तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकरपूरी दिल्ली को ये विशेषण देनाफिर अनुचित तो नहीं...? कुछ मनोरमाओं, कुछ इरोम शर्मिलाओं संगएक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वाराकी गयी नाइंसाफी का तोहमततुम भी तो जड़ते होपूरे कुनबे पर सफर में हुई चंद बदतमिजियोंकी तोहमतेंतुम भी तो लगाते होतमाम तबके पर ...तो क्या हुआकि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों केलाखों अन्य भाई-बंधुखड़े रहते हैं शून्य से हट कर नीचेकी कंपकपाती सर्दी में भीमुस्तैद सतर्क चपलचौबीसों घंटे ...तो क्या हुआकि उन चंद बदतमिजों केहजारों अन्य संगी-साथीतुम्हारे पसीने से ज्यादाअपना खून बहाते हैंहर रोज तुम्हें भान नहीं चल सकोगे"मित्र मेरे,कि जड़ ये मेरी ख़ानदानी कहे इन लाखों भाई-बंधुइन हजारों संगी-साथीकी सजग ऊँगलियाँजमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर परतो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारेतो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलमतो हक़ बना रहता है तुम्हाराखुद को बुद्धिजीवी कहलाने का सच कहता हूँजरा भी बुरे नहीं लगते तुमहमसाये मेरेकितुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपनतुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जामप्रेरक बनते हैंमेरे कर्तव्य-पालन में तुम्हीं कहोकैसे नहीं अच्छे लगोगेफिर तुम,ऐ दोस्त मेरे... (त्रैमासिक आलोचना, 2014)
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