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<poem>
चलके आते भी नहीं, दिल से वो जाते भी नहीं।
परदा वैसा ही पड़ा है, वो हटाते भी नहीं।

हर घड़ी मेरी लिए लाशए हसरत आती,
हसरते दिल को छिपाते हैं, दिखाते भी नहीं।

प्यास का हश्र तो ये होगा कि मर जाएँगे,
पर हमें आबए-गुल-हुस्न पिलाते भी नहीं।

उनका रूख ऐसा है जो हमको नहीं भाता है,
बेरूखी अपनी कभी खुल के जताते भी नहीं।

सोचते थे कि मनाएँगे निगाहों के जश्न,
एक वो हैं जो कभी आँख मिलाते भी नहीं।

वो जो आ जाएँ तो इस दिल को करार आ जाए,
दिलए-नाशाद को सीने से लगाते भी नहीं।

उनकी हर बात जमाने से निराली कातिब,
रूबरू कौन कहे ख्वाब में आते भी नहीं।
</poem>
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