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सुख के छइहां / चेतन भारती

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<poem>
बर रूख अस ये जिन्गी म
सुख के छइहां, बगरा सकन तो अच्छा हे ।
छटकत हावे अंते बिचार हमर
सकेल के बइहां बढ़ा सकन तो अच्छा हे ।

परके गर म फांस के डोरी,
महतारी के घर म फूंक के आगी,
मनसरुवा कस तापत मिलहीं ।
सुखिया के दुखे नड्डा ल दबाके,
बने सिधवा कस हांसत मिलहीं ।
बेलने कस घिलरत जिन्गी ल ,
जम्मो मिलके उचा सकन तो अच्छा हे ।।

महंगाई अऊ भ्रष्टाचारी बनगे मितवा,
तरनी तापत हें सपटे अंधियारी में ।
आवत अंजोर ल लील डारिन,
मोर ढाई के चिमनी भभकत आँधी में ।
आज तमाशा बनगे जिन्गी
करत बर्दाश्त जी सकन तो अच्छा हे ।।

पल पलात अंगरा म राखत पाँव,
देखव तो मानुखपन उसनावत हे ।
मनखे बर मनखे बनगे बइरी,
खोर खोर इरख पन इतरावत हे।।
जिन्गी के परे खोंचका डिपरा ल
करम करत हम पाट सकन तो अच्छा हे ।
</poem>
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