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खण्ड-3 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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सच ही कहा कि कविता मेरी दोषयुक्त-गुणहीन
लेकिन हित के और सहित के आसन पर आसीन
 
‘‘अभिधा में ही बात करूंगा कलियुग की ताकत है
मैं भी तीसरी आँख शब्द की जान रहा हूँ लेकिन
काम करेंगी दो आँखें हीं, जैसे, खिला-खिला दिन
 
‘‘कविता का तो अर्थ तभी है, जब हो भावक-भावुक
और हवन से उठा हुआ ज्यों धुआं चिता का धू-धू
बहने लगता घोर भयावह भय मन में है हू-हू
कर्मकाण्ड के महाजाल में माया का वह नत्र्तननर्तन अवश-विवश उस मेरे मन पर कलि का घोर विवत्र्तन विवर्तन
टूटा हुआ धनुष वेदी पर हविश यज्ञ का अच्युत
उससे भी कुछ अधिक दीन हूँ धरती पर मैं प्रत्युत ।’’
</poem>
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