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खण्ड-8 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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टंगा हुआ है शेष प्रश्न वह अब तक सूली पर ज्यों
क्यों ईश्वर के मृत्युलोक में नारी दीन दिखाए
क्या सचमुच में आई है यह ऐसा भाग्य लिखाए ?
कहीं लपट में जीते जलती, कहीं देवी को अर्पित
कैद कहीं घर की कारा में लेकर जीवन शापित
नारी की यह महासृष्टि जब, नारी क्यों परनश है
पुरुष भले हो किसी लोक का, उसका घोर अयश है
क्यों निर्लिप्त पुरुष है इतना नारी-प्रकृति से हट कर ?महाशक्ति इस महानिलय में खड़ी दिखाए डट कर !
‘‘उन दिवसों में साथ विभा का कैसा सुखकर-शीतल
मन पर नहीं उतरने देता, जितना जी दहलाए
अब तो चिन्ता है भविष्य की, जो मरुथल की रेत
देवदूत का भेष लिए है, भीतर-भीतर प्रेत ।’’प्रेत।’’
</poem>
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