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खण्ड-5 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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यह तो है बस उसी प्रकृति का हर पल आगे बढ़ना
जो सच है, स्वीकार करो, मत भागो, जो दिखता है
मनुज यहाँ करने को केवल, भाग्य कोई लिखता है ।’’है।’’
‘‘भाग्य कोई जो लिखता है, तो मेरे वश में क्या है
गाँधी की वाणी में मिल कर मेरी वाणी विहरे
इस कोशिश में मिला मुझे जो, सोचा वही बहुत है
सबसे विरत हुआ मेरा मन, लेकिन इसमें रत है ।’’है।’’
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