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मनुष्य की सोच / डी. एम. मिश्र

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पृथ्वी यह धूमती है
देखने में खडी लगती है
मनुष्य की सेाच
सपने देखती है
आँख तो तब
बन्द रहती है
एक पत्ता
पाँव भी जिसके नहीं
पंख भी जिसके नहीं
हवा के ज़ोर से चलता
सूखे पहाड़ों से
नदी निकले रसातल से
मनुष्य को ख़ुद कुआँ
खेादना पड़ता
 
खूबसूरत बोलियाँ हैं
जबानें भी
भाषा मनुष्य के ही
पास होती
नीड़ में कोई
भीड़ में कोई
मनुष्य की दुनिया
बड़ी होती
 
मनुष्य जो दिन-रात खटता
ख़ुद के लिए केवल नहीं
संसार भी तृप्त होता
बाहर-बाहर
उँगलियों में हो थकन
भीतर सुकून
एक कंधे पर
बहुत-सा भार होता
कभी सुख का
कभी दुख का
</poem>
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