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माँ - 2 / डी. एम. मिश्र

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वह जुही का पेड़
ठीक मेरे दरवाजे पर है
जिसमें एक चिड़िया का
रिक्त घोंसला
अपनी यादें समेटे
वहीं टँगा है
चिड़िया जब
घोंसला बना रही थी
तभी मुझे सुगन्धि मिल गयी थी
नये सृजन की
नये एहसास की
और मैं रोमांच से
भर गया था यह सोचकर
इस बहाने ही सही
मेरे आँगन में
फूल खिलने की तैयारी
जेारों पर है
वह दृश्य
आज भी मेरी
आँखों के सामने
जीवंत है
जब चूजे
मुँह बाये
इंन्तज़ार करते
और चिड़िया
कभी दाना
कभी नरम चारा
कभी कोई स्वादिष्ट
कीड़ा -मकोड़ा
पकड़ कर लाती
और उन्हें
बारी - बारी से चुगाती
 
चिड़िया ने कभी
स्वाद महसूसा ही नहीं
बच्चों का हिस्सा
कभी खाया ही नहीं
अब मुझे पता चला
चिड़िया ने घोंसला भी
कभी खुद के लिए
बनाया ही नहीं
</poem>
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