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ख़्वाब बुना / डी. एम. मिश्र

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मैंने जो ख्वाब बुना
उसमें बस नूर चुना
चाँद को पास बुलाने के लिए
दो जहाँ एक बनाने के लिए
रूप को चाहने वाले दोनों
एक भौंरा है, एक परवाना
मौत की हैं गिरफत में दोनों
एक पागल है, एक मस्ताना
 
मैंने जो गीत लिखा
कोई अन्दाज़ दिखा
नेह का दीप जलाने के लिए
कुछ तमस और घटाने के लिए
 
होंठ पर बाँसुरी को क्या मिलता
एक बेजान जो बजने लगती
आँख में देख के काजल सोचूँ
एक कालिख कभी जँचने लगती
 
मैने जो स्वर्ग चुना
उससे जग लाख गुना
हर्ष-आनन्द मनाने के लिए
कुछ नये फूल खिलाने के लिए
</poem>
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