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जाड़ आगे / मिलन मलरिहा

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गुन्गुर कुहरा भिनसारे छागे
जबले अग्घन महिना भागे
लकठा घलो नई दिखत मनखे
डोकरीदाई भईसा मा हपचागे।

हाथ पाँव हा ठिठुरत हावय
तापेबर गोरसी छेना लावय
सीत के कथरी ओढ़े जाड़ हा
छाँनही-छाँनही बुँद बरसावय।

डोकरा घलो जड़ावत कापत
कोठार खाल्हे भुरी तापत
सुरुजमुखी खड़े हे जईसे
घाम के रद्दा मुँह ला झाँपत।

कल्लावत हे डोकरी दाई
डोकरा नहावत नई हे भाई
कोहनी गोड़भर मईल जमे
जईसे केरवच रचे तेलाई।

जाड़ आए साग-भाजी लाए
कोला-बारी पताल कुड़हाए
मेथी-मुराई धनिया-मिरचा
सीत के बूँद नवा रंग रचाए।

सरग सुख समाए संगी
जाड़ के मउसम नवरंगी
धनहा खार मा नाचत धान
किसान बजावत सारंगी।
</poem>
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