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|सारणी=केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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<span class="upnishad_mantra">
सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये ।<br>
महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥१॥<br><br>
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सुर असुर युद्ध में विजय का अभिमान देवों ने किया,<br>
इस मान मर्दन को ही ब्रह्म ने रूप यक्ष का था लिया॥ [ १ ]<br><br>
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::तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ।<br>
::ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥२॥<br><br>
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::ये श्रेष्ठ अतिशय देवता, विश्वानि विश्व प्रणम्य है,<br>
::इनके ह्रदय में ब्रह्म तत्व का मर्म अनुभव गम्य है॥ [ २ ] <br><br>
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तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं ।<br>
पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥३॥<br><br>
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इस तथ्य को अति प्रथम इन्द्र ने ज्ञात मन द्वारा किया,<br>
इन अन्य देवों की अपेक्षा श्रेष्ठता का पद लिया॥ [ ३ ] <br><br>
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::तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदाइतीन् ।<br>
::न्यमीमिषवदा इत्यधिदैवतम् ॥४॥<br><br>
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::उपदेश दिव्य है आधिदैविक मर्म जाने भक्त ही,<br>
::जब इष्ट के साक्षात बिन , मन व्यथित व्याकुल हर कहीं॥ [ ४ ]<br><br>
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अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन ।<br>
चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँ सङ्कल्पः ॥५॥<br><br>
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फिर इष्ट में अतिशय निमग्न हो, प्रेम में व्याकुल रहे,<br>
साक्षात करने की अभीप्सा में ही मन आकुल रहे॥ [ ५ ]<br><br>
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::तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य ।<br>
::एतदेवं वेदाभि हैनँ सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥६॥<br><br>
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::जो भक्त ईशमय हो सके, आनंदमय होता वही,<br>
::आत्मीय बन कर विश्व का, सम्मान पाता हर कहीं॥ [ ६ ] <br><br>
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उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥७॥<br><br>
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वत्स तुमको ब्रह्म विद्या का मर्म व्यक्त किया सभी,<br>
श्रोतस्य श्रोतम ब्रह्म का अथ मर्म हम कहते सभी॥ [ ७ ] <br><br>
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::तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥८॥<br><br>
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::सर्वस्य परब्रह्म ब्रह्मविद्या, प्राप्त कर सकते वही,<br>
::वही सर्वथैव असाध्य ब्रह्म को, साध्य कर सकते मही॥ [ ८ ] <br><br>
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यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते ।<br>
स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥९॥<br><br>
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